वहा निकलकर थोड़ी ही दूर पर बराक ओबामा एक और बैठक में पहुंचते हैं जहां गांधी विचार को रौंदनेवाले वे इन्नोवेटिव इन्टरप्रेनर उनसे मिल रहे थे जो जन के खून चूसने की योजनाओं को व्यापार कहते हैं. वहां ओबामा ने कहा कि भारत और अमेरिका इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े साथी है. उन्होंने वहां भारत और अमेरिका के बीच दस अरब डॉलर के व्यावसायिक समझौते की घोषणा की ताकि भारत और अमेरिका विश्व व्यापारिक साझेदारी में जल्द से जल्द इक्कीसवें नंबर से नीचे उतरकर दसवें बारहवें पायदान पहुंच जाएं. क्योंकि अमेरिकी रणनीतिकारों के अनुसार भारत एक उभरता हुआ बाजार और तथाकथित महाशक्ति है इसलिए यहां की कंपनियां अमेरिका में निवेश करेंगी ताकि वहां 58 हजार नयी नौकरियां भी पैदा हो सकें. क्या ओबामा की गांधी के प्रति श्रद्धा इतनी क्षणिक है कि मणिभवन से पांचसितारा होटल पहुंचने के बीच रास्ते में ही समाप्त हो जाती है? असल में ओबामा निजी तौर पर कैसे भी व्यक्ति हों लेकिन आखिरकार वे भी अमेरिकी प्रशासन की एक कठपुतली हैं जैसे कि कोई भी राष्ट्रपति होता है. गांधी के प्रति श्रद्धा ओबामा की निजी हो सकती है लेकिन वे ज्यादा देर तक इस बात को नहीं भुला सकते हैं कि जिस एयरफोर्स वन के काफिले के साथ वे भारत आये हैं वह इसलिए है क्योंकि वे अमेरिका के राष्ट्रपति हैं. और यह अमेरिकी अपने प्रशासनिक कार्यों की धाक दुनिया पर कैसे रखता है इसका एक उदाहरण उस वक्त मिल गया जब भारत की सरजमीं पर भारत के ही मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को कहा गया कि जो ओबामा का स्वागत करने आयेंगे वे अपना पहचानपत्र भी साथ में लाएंगे. ओबामा के लिए गांधी के भारत का कोई भी मोल क्यों न हो अमेरिकी प्रशासन के लिए भारत एक बाजार है जिसका दोहन और शोषण किया जाना उसके अपने हित के लिए बहुत जरूरी है. इतिहासकार लिखते हैं कि जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए इंग्लैण्ड गये थे तो उनसे कहा गया था कि वे चाहें तो अमेरिका की यात्रा भी लगे हाथ कर सकते हैं. तब गांधी ने कहा था कि अभी वक्त नहीं आया है वे अमेरिका जाएं. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आज पचास साल बाद अमेरिका की परिस्थितियां बदल गयी हैं और गांधी समान किसी विश्वद्रष्टा के लिए अमेरिका अच्छा लगने लगेगा. वैसे भी बराक ओबामा भारत के दौरे पर ऐसे वक्त में आये हैं जब अमेरिकी आर्थिक मंदी के तूफान में तबाह हो चुका है. वे गांधी से प्रभावित भले ही हो जाएं लेकिन अमेरिकी नागरिकों के हितों की उपेक्षा करने उनके बूते की बात नहीं है. अब इसे गांधीवाद का दुर्भ्गाय कहें या मानवता का कि अमेरिका नागरिकों का हित इतना जटिल है कि उसे साधने में दुनिया को कीमत चुकानी ही होती है.
ओबामा जब अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे तो उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि वे भौतिक पूंजी की बजाय परिवार और आध्यात्मिक पूंजी को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं. अपनी इन घोषणाओं से पैसे की चक्की में पिस रहे अमेरिका के लिए ओबामा उम्मीद बन गये. लेकिन दुनिया ने देख लिया कि राष्ट्रपति बनने के बाद ओबामा सिर्फ अमेरिकी प्रशासन के रबर स्टैम्प साबित हुए हैं और कुछ नहीं. इराक, अफगानिस्तान कहीं कुछ भी बदलाव नहीं हुआ. ऐसे ओबामा से भारत को भला क्या उम्मीद करनी चाहिए? वैसे भी फोर्ब्स मैगजीन के ताजा सर्वे ने साबित कर दिया है कि अमेरिका का राष्ट्रपति अब दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति नहीं रह गया है. उससे वह जगह चीन के प्रीमीयर ने waha ली है.

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