चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1948 में शासन संभालने के बाद, भारत इसे मान्यता देने वालों में पहला देश था और खुद को एक गणतांत्रिक देश घोषित करने के तुरंत बाद भारत ने 1 अप्रैल 1950 को चीन के साथ अपने राजनयिक रिश्ते कायम किए। इसके बाद दोनों देशों में हिंदी- चीनी भाई- भाई का दौर चला, जो '62 में एक कड़वे अनुभव में बदल गया। चीन कहता है कि दोनों देशों के बीच का रिश्ता दो हजार साल पुराना है और इसमें से एक प्रतिशत से भी कम अवधि के लिए ही रिश्तों में कड़वाहट का दौर रहा। भारत और चीनी गणराज्य के बीच बने उस राजनयिक रिश्ते की यह 60 वीं सालगिरह है। इसी के साथ 5 से 8 अप्रैल तक हमारे विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा का चीन दौरा संपन्न हुआ है, जिसमें दोनों देशों ने एक दूसरे के प्रति सद्भाव भरी बातें की हैं और आपसी रिश्तों को नई ऊंचाई तक ले जाने का भरोसा दिलाया है। इस साल राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी चीन का दौरा करेंगी और चीन की ओर से भी भारत के लिए कई उच्चस्तरीय दौरे होंगे।
कड़वी बातों में गुजरा साल
पिछला साल दोनों देशों के बीच काफी कटुता के माहौल में गुजरा है। इस अवधि में भारत-चीन के बीच 4 हजार किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अरुणाचल प्रदेश से लेकर लद्दाख के इलाकों में चीनी सेना की ओर से अतिक्रमण और घुसपैठ की घटनाओं में अचानक भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। चीन ने तिब्बती नेता दलाई लामा को लेकर भी भारत पर काफी दबाव बनाए रखा, लेकिन पिछले साल अगस्त में जब उसने दलाई लामा को तवांग जाने से रोकने की कोशिश की तो भारत ने ऐसी रोक लगाने से मना करने की हिम्मत दिखाई। इन घटनाओं के बाद भारतीय और चीनी मीडिया में एक दूसरे के साथ रिश्तों को लेकर काफी प्रतिकूल बातें भी छपीं। खासकर चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स में छपे आलेखों को लेकर भारत में तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन दोनों तरफ राजनयिक स्तर पर इसे नजरअंदाज करने की कोशिशें हुईं। हालांकि भारत ने इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया कि चीनी अखबार सरकार नियंत्रित हैं और उनमें छपी बातें चीन की सरकारी नीति ही मानी जाती हैं।
स्टेपल वीजा पर चुप्पी
इधर दोनों के बीच की नोकझोंक कुछ थमी है। विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा ने चीन रवाना होने से पहले भारत की मुख्य चिंताओं का जिक्र किया था। दोनों के बीच सीमा विवाद का जटिल मसला तो है ही, जिसे सुलझाने में चीन गंभीरता नहीं दिखा रहा है। जम्मू-कश्मीर को लेकर भी उसने कुछ ऐसी बातें की हैं, जो न केवल भारत के लिए अपमानजनक हैं, बल्कि यहां के जनमानस को भी उकसाने वाली हैं। पिछले साल पता चला कि चीन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को चीन जाने पर उनके पासपोर्ट से अलग पेज पर वीजा लगाता है। चीनी अधिकारी कहते हैं कि ऐसे वीजा वे पिछले 30 सालों से जारी कर रहे हैं। लेकिन यदि 30 साल से किसी गलती की अनदेखी हो रही है, तो इसका मतलब यह नहीं कि अब इसे नहीं उठाया जा सकता। कृष्णा ने वहां इस मसले को उठाया, लेकिन चीन सरकार ने इस पर मौन साधे रखा। मतलब साफ था कि स्टेपल वीजा के मसले पर भारत की आपत्ति को वह नहीं मानता। जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए दुनिया का कोई भी देश अलग से वीजा नहीं जारी करता, यहां तक कि पाकिस्तान भी जम्मू-कश्मीर के बाशिंदों के लिए भारतीय पासपोर्ट पर भारतीय नागरिक के तौर पर ही वीजा जारी करता है। चीन यदि भारत की इस चिंता को नहीं समझता है, तो साफ है कि वह भारत पर दबाव बनाए रखना चाहता है। इस हठधर्मिता के बावजूद भारत फिलहाल चीन के साथ ज्यादा पंगा नहीं ले सकता। इस वक्त मौजूदा अंतरराष्ट्रीय माहौल ऐसा है कि हमारे लिए कुछ बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने की रणनीति पर चलते रहना ही सबसे मुनासिब दांव होगा। स्थिति बदलने पर हम चिंता और ऐतराज वाले मसलों को नए सिरे से निबटा सकेंगे। फिलहाल कई अंतरराष्ट्रीय मसले ऐसे हैं जिन पर भारत और चीन को साथ मिल कर चलना होगा, अन्यथा विकसित देशों के दबाव से भारत अकेले नहीं निबट सकेगा। मसलन पिछले साल जलवायु बदलाव के मसले पर भारत और चीन ने मिल कर अमेरिका और यूरोपीय देशों का मुकाबला किया। लेकिन दूसरी ओर चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुधार और इसमें भारत की स्थायी सदस्यता के मसले पर भारत को समर्थन का साफ वादा नहीं किया और वास्तव में भारत का विरोध करने वाले देशों पाकिस्तान और इटली के काफी क्लब को भी अप्रत्यक्ष तौर पर उकसाया। पर, उसने भारत की उम्मीदवारी का खुलकर विरोध भी नहीं किया है। बल्कि यह कहकर कि चीन अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत को बेहतर भूमिका निभाते हुए देखना चाहता है, उसने भारत का मनोबल कुछ बढ़ाया ही है। हमें अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मित्रता, विरोध और कम विरोध के इस डायनेमिक्स को समझना होगा। जैसे यह जानते हुए कि दोनों देशों के बीच पिछले साल हुआ 42 अरब डॉलर का व्यापार चीन के पक्ष में झुका हुआ है -हम इस ट्रेड रिलेशन की उपेक्षा नहीं कर सकते। यदि आज चीन भारत की आपत्तियों को दूर करने का कोई वादा नहीं कर रहा है, तो हम इस पर मुंह फुला कर नहीं बैठ सकते।
सम्मान के लिए ताकत
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ताकत ही ताकत का सम्मान करती है, इसलिए चीन से सम्मान पाने के लिए भारत को अपनी ताकत बढ़ाते रहना होगा और साथ ही अपने रिश्तों का प्रबंध भी इस तरह करना होगा कि तनाव बढ़ने नहीं पाए और संघर्ष की नौबत भी नहीं आए। फिलहाल रिश्तों के तराजू पर चीन का पलड़ा भारी है, पर वहां की सत्ता में भी कई तरह के गुट हैं, जिनमें कुछ भारत से दोस्ती चाहते हैं, तो कुछ तनाव बनाए रहने में अपना हित देखते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए हमें रिश्तों को संतुलित तौर पर आगे बढ़ाने की रणनीति पर चलना होगा।

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