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बुखारी को सबक सिखाना जरूरी

शाही इमाम द्वारा यह कृत्य जाहिर करता है कि बाबरी मस्जिद प्रकरण को रंग रोगन देने में वो जो चाह रहें है वो लोगों के गले नही उतर रहा है जिसके चलते वे खुद को आज की तारीख में हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहे है ऐसे में बुखारी जी की बौखलाहट बढ़ गई है. वे इस मामले को तूल देकर मुख्यधारा में आने के लिए छटपटा रहे हैं किन्तु गिरगिट की भांति रंग बदलने वाले इन धार्मिक आकाओं की बातों पर जनता कोई खास तवज्जो नही दे रही है अलबत्ता लोग यह जरुर कह रहें है कि इस मामले पर अब अवाम राजनीति की और रोटियां नही सिकने देगी। अब वक्त आ गया है कि बुखारी जैसे आकाओं को जनता सबक सिखाए ताकि आगे ये इस तरह की गलती न दोहरा सकें.
ज्यादातर मुसलमान फैसले को परिपक्व एवं न्यायसंगत फैसला ही बता रहे हैं लोगों का मानना है कि न्यायालय के फैसले में भावनाओं का भी ध्यान रखा गया है तथा पात्रता के अनुरूप स्थानों का आवंटन भी किया गया है जिसके कारण ज्यादातर लोगों ने इस फैसले को आत्मसात ही किया है। खासकर इस मामले में हासिम अंसारी द्वारा की जा रही आपसी बातचीत ने इन आकाओं को पायदान पर ला खड़ा कर दिया है साफ जाहिर है कि ये आका ऐसा करके देश के उन सभी मुसलमानों को ये सन्देश देना चाह रहे है कि जो कोई मुसलमान बाबरी मस्जिद के खिलाफ या राम मंदिर के समर्थन में कुछ कहेगा या फिर भाईचारे की बात करेगा उन सभी का वो ऐसा ही हश्र करेंगे. ये कुछ ऐसा ही है कि जब कभी कोई हिन्दू अदालत के फैसले के समर्थन में या फिर विवादित स्थल मुसलमानों को सौंपने की बात कहे और प्रवीण तोगड़िया एवं अन्य बजरंगी उस पर टूट पड़ें. मगर प्रवीण तोगड़िया ने ऐसा किया नहीं. अगर करते तो शायद देश में भूचाल गया होता. हाला कि कुछ लोग इस प्रकरण को देष के सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने की बात भी कर रहें है इसका सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें फैसला मान्य नहीं है देश की जनता ने फैसले का स्वागत किया है और बड़े ही सूझ बूझ के साथ आपसी सौहार्द भी बनाये रखा है बावजूद इसके इस मामले की चौसर पर ये आका अपने-अपने पासे फेंक रहे हैं और बहुसंख्यक जनता इस फैसले में न्यायाधीशों की सूझबूझ बता रही है. चूकि कहीं भी कोई घटना नही हो पायी जिसकी आम लोगों को आशंका थी खासकर युवा वर्ग अब इस प्रकरण का विराम चाहता है. आज देश की आधे से ज्यादा आबादी युवाओं की है, जिनमें से बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की है, जो उन्माद के उस दौर के बाद पैदा हुए हैं, जिसने देश के सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने को खासा नुकसान पहुंचाया था। इन युवाओं के अपने सपने हैं, उन्हें अब धर्म या मजहब के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता। जो लोग अब इस मामले को तूल दे रहे हैं वे किसी राजनीतिक दल के इशारे एवं लालच के कारण ऐसा कर रहे हैं.
इसमें
कोई दो राय नही इस फैसले ने कम से कम राम-रहीम को एक मानकर साथ बैठने का रास्ता तो खोला ही ये दीवारें हमारे साथ तो दफन नहीं होने की सच तो यह है कि इनके नीचे कौन दफन है, हमें भी नहीं मालूम। किसके लिए हम राम-रहीम को लड़ा रहे हैं, कौन-सी संस्कृति हम बच्चों को विरासत में दे जाना चाहते हैं या यूं कहें कि हम तय कर चुके हैं कि आरक्षण मामले की तरह इस मामले के माध्यम से हम भी देष को एक नहीं रहने देंगे? अरे राम रहीम के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वालों , रोटियां सेकने वालो कम से कम फैसला आने के बाद तो लाषों पर राजनीति करने का मंसूबा बदलो अरे कम से कम इन देषवासियों की भावनाओं का कुछ तो सम्मान करो, जिन्होंने पूरी तरह से सब्र का परिचय देते हुये आपसी एकता अखण्डता की मिसाल पेष करते हुये मौन रहकर इस फैसले को आत्मसात किया है।एक वहीद पत्रकार ही अकेला नहीं है. अखबार के कालमों से लेकर ब्लागों और वेबसाइटों के बड़े नामों पर हर जगह वो लोग उन सभी पर एक साथ हल्ला बोल रहे हैं जो अदालत के निर्णय के साथ या निरपेक्ष खड़े हैं. मुझे नहीं मालूम कि अभिव्यक्ति का ऐसा संकट आपातकाल में भी था की नहीं? अफसोस इस बात का भी है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस मामले में आँखें मूँद कर तमाशा देख रहा है. कल जब वहीद पिट रहा था, उस वक्त भी वो मुस्कुराते हुए तमाशा देख रहे थे. मौका मिलता तो अपनी तरफ से भी दो चार थप्पड़ लगा देते.
एक सच्चाई यह भी है कि मीडिया भी कभी कभी अति प्रसंसा अति निन्दा पर बहस छेड़ कार्य दायित्वों से इतर अतिसंयोक्ति करने लगता है देखने में आया एक बड़े चैनल पर खबर फ्लैश की जा रही थी कि आखिर बुखारी को गुस्सा क्यूँ आता है ? मानो बुखारी का गुस्सा हो किसी ऐसे व्यक्ति का गुस्सा हो जो एक अरब हिन्दुस्तानियों की तकदीर लिख रहा हो। कहने का तात्पर्य यह कि मीडिया ने भी राजनैतिक पार्टियों की तरह साम्प्रदायिकता की अपनी अपनी परिभाषाएं गढ़ ली है। कहीं पर वो भगवा ब्रिगेड के साथ दिखाई पड़ता है तो कहीं मुल्लाओं के पक्ष में, इन दोनों ही स्थितियों में वो अक्सर अतिवादी हो जाता है। ये समकालीन पत्रकारिता का स्याह चेहरा है जहाँ हेमचन्द्र की हत्या पर जश्न मनाये जाते हैं, गिलानी की गमखोरी पर पुरस्कार बटोरे जाते हैं, वहीँ वहीद के अपमान पर चुप्पी साध ली जाती है। अब समय गया है कि बुखारी जैसो को तरीका बताया जाये कि पत्रकारों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिये लेकिन इसके लिए सबसे पहले ये जरूरी होगा कि मीडिया खुद खुद धर्मनिरपेक्षता के पैमाने तय करे जो सर्वमान्य हो. हमें ये भी तय करना होगा कि व्यवस्था को गाली देने की आड़ में कहीं राष्ट्र के अस्तित्व को ही तो चुनौती देने का काम नहीं किया जा रहा है. तब शायद ये संभव होगा कि हममें से कोई हिन्दू या मुस्लिम पत्रकार उठे और बुखारी को उन 36 हजार लोगों की ताकत एक साथ दिखा दे जैसा कि बुखारी ने खुद कहा कि वहीद जैसे 36 हजार उनके आगे पीछे घूमते हैं हांला कि इस प्रकरण मे पत्रकारों की एकजुटता दिखाई दे रही है जन जागरण मीडिया मंच सहित उपजा एवं राजधानी के विभिन्न पत्रकार संगठनो ने बुखारी के गिरफतारी की मांग प्रदेश सरकार से की है तथा आक्रोशित पत्रकारों ने पुतला दहन भी किया है अब देखना यह है कि कार्यवाई का अंजाम क्या आता है?

( विस्फोट डाट कॉम के साभार से )

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